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समझें इस जीवन को और खुद को | Samjhon is jeevan ko aur khud ko. (Hindi Inspirational Speech)



     समझें इस जीवन को और खुद को     


                                                         - शशिकांत ' सदैव '

यह पृथ्वी भी रहस्यपूर्ण है और इंसान भी । जितने रहस्य बाहर पृथ्वी के तल पर घटते हैं शायद उससे भी कई ज्यादा रहस्य इंसान के अंत : स्थल पर घटते हैं और जब यह दोनों मिलते हैं तो यह जीवन और भी रहस्यपूर्ण हो जाता है । कहां , किसमें , क्या और कितना छिपा है इस बात का अंदाजा तक नहीं लगाया जा सकता । जीवन के और खुद के रहस्य को समझना और आपस में दोनों तालमेल बिठाना ही जीवन जीने की कला है और इस रहस्य को जानने के लिए जरूरी है इस जीवन को जीना । इससे जुड़े सवालों का उत्तर खोजना , जैसे - यह जीवन क्यों मिला है ? और जैसा मिला है , वैसा क्यों मिला है ? जब मरना ही है तो जीवन का क्या लाभ ? जब सब कुछ छिन ही जाना है , साथ कुछ नहीं जाना तो फिर यह जीवन इतना कुछ देता ही क्यों है ? जब सबसे बिछड़ना ही है तो हम इतनों से क्यों मिलते हैं , क्यों जुड़ते हैं संबंधों से ? क्यों बसाते हैं अपना संसार ?

इंसान सीधे - सीधे क्यों नहीं मर जाता , इतने उतार चढ़ाव इतने कष्ट क्यों ? इंसान सरलता से सफल क्यों नहीं हो जाता , इतनी परीक्षाएं क्यों ? कहते हैं सब कुछ पहले से ही तय है कि कौन क्या करेगा , कब करेगा , कितना और कैसा जिएगा ? यह सब पहले से ही निर्धारित है । इंसान बस उसको भोगता है , उससे गुजरता है । जब सब कुछ पहले से ही तय है तो फिर कर्म और भाग्य क्यों ? गीता कहती है ‘ यहां हमारा कुछ नहीं , हम खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे । ' यदि यह सत्य है तो इंसान के हाथ इतने भर क्यों जाते है ? कहां से जुटा लेता आदमी इतना कुछ ? यह सब सोचने जैसा है ।

सुनकर , सोचकर लगता है कि यह ' जीवन ' कितना उलझा हुआ है , यह दो - दो बातें करता है । न हमें ठीक से जलने देता है न ही बुझने देता है । हमें बांटकर , कशमकश में छोड़ देता है । सोचने की बात यह है कि यह जीवन उलझा हुआ है या हम उलझे हुए हैं ? उलझने हैं या पैदा करते हैं ? कमी जीवन में है या इसमें ? हमें जीवन समझ में नहीं आता या हम स्वयं को समझ नहीं पाते ? यह जन्म जीवन को समझने के लिए मिला है या खुद को समझने के लिए ? यह सवाल सोचने जैसे हैं । कितने लोग हैं जो इस जीवन से खुश हैं ? कितने लोग हैं जो स्वयं अपने आप से खुश हैं ? किसी को अपने आप से शिकायत है तो किसी को जीवन से । सवाल उठता है कि आदमी को जीवन में आकर दुख मिलता है या फिर वह अपनी वजह से जीवन को दुखी बना लेता है ? यदि जीवन में दुख होता तो सबके लिए होता , और हमेशा होता । मगर यही जीवन किसी को सुख भी देता है । जीवन सुख - दुख देता है या फिर आदमी सुख - दुख बना लेता है ? यह दोहरा खेल जीवन खेलता है या आदमी ? यह सब सोचने जैसा है ।

देखा जाए तो जीवन यह खेल नहीं खेल सकता , क्योंकि जीवन कुछ नहीं देता । हां जीवन में , जीवन के पास सब कुछ है । वह देता कुछ नहीं है , उससे इंसान को लेना पड़ता है । यदि देने का या इस खेल का जिम्मा जीवन का होता तो या तो सभी सुखी होते या सभी दुखी होते या फिर जिस एक बात पर एक आदमी दुखी होता है सभी उसी से दुखी होते तथा सब एक ही बात से सुखी होते , मगर ऐसा नहीं होता । तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि यह खेल आदमी खेलता है । आदमी जीवन को सुख - दुख में बांट देता है । यदि यह सही है तो इसका क्या मतलब लिया जाए , कि आदमी होना गलत है ? यानी इस जीवन में आना , जन्म लेना गलत है ? एक तौर पर यह निष्कर्ष ठीक भी है न आदमी जन्म लेगा , न जीवन से रू - ब - रू होगा न ही सुख - दुख भोगेगा । न होगा बांस न बजेगी बांसुरी ।

मगर सच तो यह हम स्वयं को जन्म लेने से नहीं रोक सकते । जैसे मृत्यु आदमी के हाथ में नहीं है वैसे ही जन्म भी आदमी के हाथ में नहीं है । अब क्या करें ? कैसे बचें इस जीवन के खेल से ? क्या है हमारे हाथ में ? एक बात तो तय है आदमी होने से नहीं बचा जा सकता , लेकिन उसको तो ढूंढ़ा जा सकता है जो आदमी में छिपा है और जिम्मेदार है इस खेल का । पर कौन है आदमी में इतना चालाक , चंचल , जो जीवन को दो भागों में बांटने में माहिर है ? जो अच्छे भले जीवन को दुख , दर्द , तकलीफ , कष्ट , क्रोध , ईर्ष्या , बदला , भय आदि में बांट देता है ?

शायद मन या फिर निश्चित ही मन । क्योंकि जहां मन है वहां कुछ भी या सब कुछ संभव है । संभावना की गुंजाइश है तो हमें जीवन को नहीं मन को समझना है क्योंकि यदि हमने मन को संभाल लिया तो समझो जीवन को संभाल लिया । सभी रास्ते मन के हैं , सभी परिणाम मन के हैं , वरना इस जन्म में , इस जीवन में रत्ती भर कोई कमी या खराबी नहीं । अपने अंदर की कमी को , मन की दोहरी चाल को समझ लेना और साध लेना ही एक कला है , एक मात्र उपाय है । इसलिए इस जीवन को कैसे जिएं कि इस जीवन में आना हमें बोझ या सिरदर्दी नहीं , बल्कि एक उपहार या पुरस्कार लगे । और वह भी इतना अच्छा कि किसी मोक्ष या निर्वाण की जरूरत न पड़े । जीवन जीना ही हमारे लिए मोक्ष हो , जीते जी हमें निर्वाण मिले मरने के बाद नहीं । ऐसे जीना या इस स्थिति एवं स्तर पर जीवन को जीना वास्तव में एक कला है और कोई भी कला बिना साधना के , तप के नहीं सधती । तभी तो अनुभवियों ने कहा यह जीवन एक साधना है । अन्य अर्थ में कह सकते हैं कि यह जीवन जीना एक कला है जिसके लिए जरूरी है इस जीवन को और खुद को समझना ।


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